🌿सच्ची श्रद्धा की सच्ची प्रेम भक्ती🌿
ब्रजमंडल क्षेत्र में एक जंगल के पास एक गाँव बसा था। जंगल के किनारे ही एक टूटी-फूटी झोपड़ी में एक सात वर्षीया बालिका अपनी बूढ़ी दादी के साथ रहा करती थी। जिसका नाम उसकी दादी ने बड़े प्रेम से श्रद्धा रखा था। श्रद्धा का उसकी दादी के अतिरिक्त और कोई सहारा नहीं था, उसके माता पिता की मृत्यु एक महामारी में उस समय हो गई थी जब श्रद्धा की आयु मात्र दो वर्ष ही थी, तब से उसकी दादी ने ही उसका पालन-पोषण किया था।
उस बूढ़ी स्त्री के पास भी कमाई का कोई साधन नहीं था इसलिए वह जंगल जाती और लकड़िया बीन कर उनको बेचती और उससे जो भी आय होती उससे ही उनका गुजारा चलता था। क्योंकि घर में ओर कोई नहीं था इसलिए दादी श्रद्धा को भी अपने साथ जंगल ले जाती थी। दोनों दादी-पोती दिन भर जंगल में भटकते और संध्या होने से पहले घर वापस लौट आते यही उनका प्रतिदिन का नियम था।
श्रद्धा अपनी दादी के साथ बहुत प्रसन्न रहती थी, किन्तु उसको एक बात बहुत कचोटती थी। उसका कोई भाई या बहन नहीं थे। गांव के बच्चे उसको इस बात के लिए बहुत चिढ़ाते थे तथा उसको अपने साथ भी नहीं खेलने देते थे, इससे वह बहुत दुःखी रहती थी। अनेक बार वह अपनी दादी से पूछती कि उसका कोई भाई क्यों नहीं है। तब उसकी दादी उसको प्रेम से समझाती कौन कहता है कि तेरा कोई भाई नहीं है, वह है ना कृष्ण कन्हैया वही तेरा भाई है, यह कहकर दादी लड्डू गोपाल की ओर संकेत कर देती। श्रद्धा की झोंपडी में एक पुरानी किन्तु बहुत सुन्दर लड्डू गोपाल की प्रतिमा थी जो उसके दादा जी लाये थे। श्रद्धा की दादी उनकी बड़े मन से सेवा किया करती थी। बहुत प्रेम से उनकी पूजा करती और उनको भोग लगाती। निर्धन स्त्री पकवान मिष्ठान कहाँ से लाये जो उनके खाने के लिए रुखा सूखा होता वही पहले भगवान को भोग लगाती फिर श्रद्धा के साथ बैठ कर खुद खाती। श्रद्धा के प्रश्न सुनकर वह उस लड्डू गोपाल की ओर ही संकेत कर देती।
बालमन श्रद्धा लड्डू गोपाल को ही अपना भाई मानने लगी। वह जब दुःखी होती तो लड्डू गोपाल के सम्मुख बैठ कर उनसे बात करने लगती और कहती कि भाई तुम मेरे साथ खेलने क्यों नहीं आते, सब बच्चे मुझ को चिढ़ाते हैं, मेरा उपहास करते हैं, मुझको अपने साथ भी नहीं खिलाते, मैं अकेली रहती हूँ, तुम क्यों नहीं आते? क्या तुम मुझ से रूठ गए हो, जो एक बार भी घर नहीं आते, मैंने तो तुमको कभी देखा भी नहीं।
अपनी बाल कल्पनाओं में खोई श्रद्धा लड्डू गोपाल से अपने मन का सारा दुःख कह देती। श्रद्धा का प्रेम निश्च्छल था, वह अपने भाई को पुकारती थी। उसके प्रेम के आगे भगवान भी नतमस्तक हो जाते थे, किन्तु उन्होंने कभी कोई उत्तर नहीं दिया। एक दिन श्रद्धा ने अपनी दादी से पूछा कि दादी मेरे भाई घर क्यों नहीं आते, वह कहाँ रहते हैं। तब दादी ने उसको टालने के उद्देश्य से कहा तेरा भाई जंगल में रहता है, एक दिन वह अवश्य आएगा। श्रद्धा ने पूछा क्या उसको जंगल में डर नहीं लगता, वह जंगल में क्यों रहता है। तब दादी ने उत्तर दिया नहीं वह किसी से नहीं डरता, उसको गांव में अच्छा नहीं लगता इसलिए वह जंगल में रहता है।
धीर-धीरे रक्षा बंधन का दिन निकट आने लगा, गाँव में सभी लड़कियों ने अपने भाइयों के लिए राखियां खरीदी वे सभी श्रद्धा को चिढ़ाने लगी तेरा तो कोई भाई नहीं तू किसको राखी बांधेगी। अब श्रद्धा का सब्र टूट गया। वह घर आकर जोर-जोर से रोने लगी, दादी के पूछने पर उसने सारी बात बताई, तब उसकी दादी भी बहुत दुःखी हुई उसने श्रद्धा को प्यार से समझाया कि मेरी बच्ची तू रो मत, तेरा भाई अवश्य आएगा, किन्तु श्रद्धा का रोना नहीं रुका वह लड्डू गोपाल की प्रतिमा के पास जाकर उससे लिपट कर जोर-जोर से रोने लगी और बोली कि भाई तुम आते क्यों नहीं, सब भाई अपनी बहन से राखी बंधवाते हैं, फिर तुम क्यों नहीं आते?
उधर गोविन्द श्रद्धा की समस्त चेष्टाओं के साक्षी बन रहे थे। रोते-रोते चंदा को याद आया कि दादी ने कहा था कि उसका भाई जंगल में रहता है, बस फिर क्या था वह दादी को बिना बताए नंगे पाँव ही जंगल की ओर दौड़ पड़ी, उसने मन में ठान लिया था कि वह आज अपने भाई को लेकर ही आएगी। जंगल की काँटों भरी राह पर वह मासूम दौड़ी जा रही थी, हृदय में बैठे श्री गोविन्द उसके साक्षी बन रहे थे। तभी श्री हरी गोविन्द पीड़ा से कराह उठे उनके पांव से रक्त बह निकला, आखिर हो भी क्यों ना श्री हरी का कोई भक्त पीड़ा में हो और भगवान को पीड़ा ना हो यह कैसे संभव है। जंगल में नन्हीं श्रद्धा के पाँव में काँटा लगा तो भगवान भी पीड़ा से कराह उठे। उधर श्रद्धा के पैर में भी रक्त बह निकला वह वही बैठ कर रोने लगी, तभी भगवान ने अपने पाँव में उस स्थान पर हाथ फेरा जहा कांटा लगा था, पलक झपकते ही श्रद्धा के पाँव से रक्त बहना बंद हो गया और दर्द भी ना रहा। वह फिर से उठी और जंगल की ओर दौड़ चली। इस बार उसका पाँव काँटों से छलनी हो गया किन्तु वह नन्हीं सी जान बिना चिंता किये दौड़ती रही उसको अपने भाई के पास जाना था। अंततः एक स्थान पर थक कर रुक गई और रो-रो कर पुकारने लगी भाई तुम कहाँ हो, तुम आते क्यों नहीं।
अब श्री गोविन्द के लिए एक पल भी रुकना कठिन था, वह तुरंत उठे और एक 11-12 वर्ष के सुन्दर से बालक का रूप धारण किया तथा पहुँच गए श्रद्धा के पास। उधर श्रद्धा थककर बैठ गई थी और सर झुका कर रोये जा रही थी। तभी उसके सर पर किसी के हाथ का स्पर्श हुआ और एक आवाज सुनाई दी, "में आ गया मेरी बहन, अब तू ना रो। श्रद्धा ने सर उठा कर उस बालक को देखा और पूछा कि क्या तुम मेरे भाई हो? तब उत्तर मिला हाँ श्रद्धा, में ही तुम्हारा भाई हूँ। यह सुनते ही श्रद्धा अपने भाई से लिपट गई और फूट फूट कर रोने लगी।
तभी भक्त और भगवान के मध्य भाव और भक्ति का एक अनूठा दृश्य उत्त्पन्न हुआ, भगवान वही धरती पर बैठ गए उन्होंने नन्ही श्रद्धा के कोमल पैरों को अपने हाथों में लिया और उसको बड़े प्रेम से देखा। वह छोटे-छोटे कोमल पांव पूर्ण रूप से काँटों से छलनी हो चुके थे उनमें से रक्त बह रहा था, यह देख कर भगवान की आँखों से आंसू बह निकले। उन्होंने उन नन्हें पैरों को अपने माथे से लगाया और रो उठे। अद्भूत दृश्य, बहन भाई को पाने की प्रसन्नता में रो रही थी और भगवान अपने भक्त के कष्ट को देख कर रो रहे थे। श्री हरी ने अपने हाथों से श्रद्धा के पैरों में चुभे एक एक कांटे को बड़े प्रेम से निकाला फिर उसके पैरों पर अपने हाथ का स्पर्श किया, पलभर में सभी कष्ट दूर हो गया। श्रद्धा अपने भाई का हाथ पकड़ कर बोली भाई तुम घर चलो, कल रक्षा बंधन है, में भी रक्षा बंधन करुँगी। भगवान बोले अब तू घर जा, दादी प्रतीक्षा कर रही होगी, मैं कल प्रातः घर अवश्य आऊंगा। ऐसा कहकर उसको विश्वास दिलाया और जंगल के बाहर तक छोड़ने आए।
अब श्रद्धा बहुत प्रसन्न थी उसकी सारी चिंता मिट गई थी, घर पहुंची तो देखा कि दादी का रो-रो कर बुरा हाल था। श्रद्धा को देखते ही उसको छाती से लगा लिया। श्रद्धा बहुत पुलकित थी बोली दादी अब तू रो मत कल मेरा भाई आएगा, मैं भी रक्षा बंधन करुँगी। दादी ने अपने आंसू पोंछे उसने सोचा कि जंगल में कोई बालक मिल गया होगा जिसको यह अपना भाई समझ रही है। श्रद्धा ने दादी से जिद्द की और एक सुन्दर सी राखी अपने भाई के लिए खरीदी। अगले दिन प्रातः ही वह नहा-धोकर अपने भाई की प्रतीक्षा में द्वार पर बैठ गई। उसको अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी थोड़ी देर में ही वह बालक सामने से आते दिखाई दिया। उसको देखते ही श्रद्धा प्रसन्नता से चीख उठी "दादी भाई आ गया" और वह दौड़ कर अपने भाई के पास पहुँच गई, उसका हाथ पकड़कर घर में ले आई।
अपनी टूटी-फूटी चारपाई पर बैठाया बड़े प्रेम से भाई का तिलक किया आरती उतारी और रक्षा बंधन किया। सुन्दर राखी देख कर भाई बहुत प्रसन्न था। भाई के रूप में भगवान उसके प्रेम को देख कर विभोर हो उठे थे, अब बारी उनकी थी। भाई ने अपने साथ लाए झोले को खोला तो खुशियों का अम्बार था, सुन्दर कपड़े, मिठाई, खिलौने और भी बहुत कुछ। श्रद्धा को तो मानो पंख लग गए थे। उसकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। कुछ समय साथ रहने के बाद वह बालक बोला अब मुझको जंगल में वापस जाना है। श्रद्धा उदास हो गई, तब वह बोला तू उदास ना हो, आज से प्रतिदिन में तुमसे मिलने अवश्य आऊंगा। अब वह प्रसन्न थी। बालक जंगल लौट गया।
उधर दादी असमंजस में थी कौन है यह बालक, उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। किन्तु हरि के मन की हरि ही जाने। भाई के जाने के बाद जब श्रद्धा घर में वापस लौटी तो एकदम ठिठक गई उसकी दृष्टि लड्डू गोपाल की प्रतीमा पर पड़ी तो उसने देखा कि उनके हाथ में वही राखी बंधी थी जो उसने अपने भाई के हाथ में बांधी थी। उसने दादी को तुरंत बुलाया यह देख कर दादी भी अचम्भित रह गई, किन्तु उसने बचपन से कृष्ण की भक्ति सच्ची श्रद्धा से की थी वह तुरंत जान गई कि वह बालक और कोई नहीं स्वयं श्री हरि ही थे। वह उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली : हे छलिया, जीवन भर तो छला जीवन का अंत आया तो अब भी छल कर चले गए। वह श्रद्धा से बोली : अरी वह बालक और कोई नहीं तेरा यही भाई था। यह सुन कर श्रद्धा भगवान की प्रतिमा से लिपट कर रोने लगी। रोते हुए बोली : कहो ना भाई क्या वह तुम ही थे, मैं जानती हूँ वह तुम ही थे, फिर सामने क्यों नहीं आते, छुपते क्यों हो। दादी पोती का निर्मल प्रेम ऐसा था कि भगवान भी विवश हो गए। लीलाधारी तुरंत ही विग्रह से प्रकट हो गए और बोले हां श्रद्धा मैं ही तुम्हारा वह भाई हूँ, तुमने मुझको पुकारा तो मुझको आना पड़ा और मैं कैसे नहीं आता, जो भी लोग ढोंग, दिखावा, पाखंड रचते हैं उनसे मैं बहुत दूर रहता हूँ, किन्तु जब मेरा कोई सच्चा भक्त सच्ची श्रद्धा और प्रेम भाव से मुझको पुकारता है तो मुझको आना ही पड़ता है। इसलिये सच्ची श्रद्धा ऐसी होती है जिसमें छलकपट का नामोनिशान न हो तब परमानंद को आना ही पड़ता है और जीवन शांति एवं परम आनंद की खुशबू से महक उठता है